हाल ही में टीवी पर एक साक्षात्कार में श्री हरीश साल्वे ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कुछ नेताओं के लिए कहा कि “आपके पास पूर्ण बहुमत हो सकता है, लेकिन कृप्या मीडिया, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और जनहित याचिकाएं (पीआईएल) दाखिल कर अदालती मुकदमों का सहारा लेने वाले लोगों की हिला देने वाली ताकत को कम करके नहीं आंकें।”
पिछले तीन महीनों में ‘संविधान की रक्षा’ और ‘उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की गरिमा’ के नाम पर सार्वजनिक संवाद और मीडिया में विपक्ष का शोर ही छाया रहा है। राजनीतिक संबंध रखने वाले या विभिन्न विपक्षी पार्टियों के वफादार वकील ‘संविधान तथा न्यायाधीशों की गरिमा की रक्षा करने के लिए’ कांग्रेस की अगुआई में एकजुट हो गए हैं। कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष ने तो राजनीति से प्रेरित कुछ पीआईएल का हवाला देते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश को ‘बेंच फिक्सर’ तक कह डाला है। न्यायपालिका को धमकाने के लिए वे झूठ फैला रहे हैं और ओछे आरोप लगाकर तथा महाभियोग तक की बात कहकर न्यायाधीशों को डरा रहे हैं। इसलिए अतीत पर नजर डालकर यह देखना जरूरी है कि इन ताकतों ने कैसे न्यायिक संस्थाओं तथा न्यायाधीशों की प्रतिष्ठा और गरिमा को नुकसान पहुंचाया है।
जब हम इस मामले को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो हमें पता चलता है कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट न्यायपालिका की गरिमा तथा स्वतंत्रता को ठेस पहुंचाते आए हैं। यह सब स्वतंत्रता के शुरुआती दिनों में ही आरंभ हो गया था। न्यायमूर्ति बी. पी. सिन्हा बताते हैं कि भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति हरिलाल जे, कनिया का 6 नवंबर, 1951 को जब दिल का दौरा पड़ने से अचानक असामयिक निधन हो गया तो प्रधानमंत्री न्यायमूर्ति एम, पतंजलि शास्त्री, मेहर चंद महाजन तथा बी. के. मुखर्जी की वरिष्ठता को नजरअंदाज कर न्यायमूर्ति एस. आर. दास को मुख्य न्यायाधीश बनाना चाहते थे। लेकिन जैसा कि न्यायमूर्ति सिन्हा कहते हैं, एक ‘अलिखित कानून’ ने ऐसा होने से रोक दिया। अंत में न्यायमूर्ति पतंजलि शास्त्री ने दो महीने तक कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के रूप में काम करने के बाद पद की शपथ ली। यह इकलौता मौका था, जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय को कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश मिले।
न्यायमूर्ति पतंजलि शास्त्री के सेवानिवृत्त होने के बाद पंडित नेहरू मेहर चंद महाजन को मुख्य न्यायाधीश के पद पर पहुंचने से रोकना चाहते थे क्योंकि कश्मीर मसले पर दोनों की बिल्कुल नहीं बनती थी। महाजन सबसे कठिन समय में यानी 1946 और 1947 में कश्मीर के प्रधानमंत्री रह चुके थे। दोनों के बीच कड़वा पत्र व्यवहार हुआ था और दोनों ने ही सरदार पटेल से शिकायत की थी कि दूसरा पक्ष उनकी सुनता नहीं है। महाजन ने कश्मीर मामले में बरबादी की चेतावनी दे दी थी। सरदार पटेल दोनों के बीच मध्यस्थ का काम करते थे। पंडित नेहरू तो महाजन के सर्वोच्च न्यायालय में न्याधीश बनने से भी दुखी हुए थे। 3 जनवरी, 1954 को मुख्य न्यायाधीश पतंजलि शास्त्री के सेवानिवृत्त होने के बाद नेहरू सरकार ने बंबई उच्च न्यायालय से एम. सी. चांगला को सीधे भारत का मुख्य न्यायाधीश बनाने की इच्छा जताई। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने इस कदम का विरोध तो किया ही, कांग्रेस सरकार से यह तक कह डाला कि यदि, “आप महाजन के बजाय किसी अन्य को मुख्य न्यायाधीश बनाना चाहते हैं तो आप पूरे सर्वोच्च न्यायलय को ही नया बनाने के बारे में सोच सकते हैं।” न्यायमूर्ति एस. आर. दास को मुख्य न्यायाधीश बनने के लिए मनाया जा रहा था, लेकिन उन्होंने पंडित नेहरू से कह दिया कि शपथ लेने के बजाय वह इस्तीफा दे देंगे। 1954 और 1973 के बीच अफसरशाही और न्यायपालिका के बीच बहुत अच्छे रिश्ते नहीं रहे। अफसरशाही अक्सर अपनी पसंद के लोगों को नियुक्त करा लेती थी। लेकिन अगर मुख्य न्यायाधीश ने किसी व्यक्ति को पसंद नहीं किया और अड़ गए तो पीछे हट जाती थी। लेकिन यह सब जनता की नजरों से बहुत दूर रहा।
न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायाधीशों की गरिमा पर असली प्रहार श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार आने के साथ शुरू हुआ। केशवानंद भारती मामले में मुकदमा हारने के बाद श्रीमती गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय को घुटने टेकने पर मजबूर करने का ही फैसला नहीं किया बल्कि असहमति जताने वाले न्यायाधीशों को सबक सिखाने की भी ठान ली। केशवानंद भारती मामले में फैसला 24 अप्रैल, 1973 को सुनाया गया और मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस. एम. सीकरी को अगले दिन सेवानिवृत्त होना था। सीकरी के बाद तीन सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे. एम. शेलाट, के. एस. हेगड़े और ए. एन. ग्रोवर थे। फैसला आने के फौरन बाद 24 अप्रैल को ही मंत्रिमंडल की राजनीतिक मामलों की समिति की बैठक हुई और उसने तीन अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों को लांघते हुए ए. एन. रे की नियुक्ति का निर्णय लिया। आकाशवाणी ने 24 अप्रैल को शाम 5 बजे के अपने बुलेटिन में ए. एन. रे को भारत का मुख्य न्यायाधीश बनाए जाने की घोषणा की और तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों न्यायमूर्ति शेलाट, हेगड़े तथा ग्रोवर ने इस्तीफे दे दिए। इस प्रकार न्यायाधीशों को तत्कालीन सरकार की बात नहीं मानने की सजा दी गई।
रजनी पटेल, मोहन कुमारमंगलम तथा कई अन्य कांग्रेसी नेता “सर्वोच्च न्यायालय को सरकार के प्रति समर्पित न्यायाधीशों से भरने” की बात करते रहे थे। कांग्रेस में श्री मोहन कुमारमंगलम, एस. एस. रे, एच. आर. गोखले और कई अन्य खुलेआम कहते आए थे कि “...पार्टी और इंदिरा के सलाहकारों के बीच लंबे समय से, कम से कम सर्दियों से दमन की बात होती आई है।” न्यायपालिका को सरकार के रास्ते में रुकावट माना जाता था। “विधि मंत्री गोखले ने कुछ वर्षों बाद बताया कि प्रधानमंत्री सिद्धार्थ (रे) और कुमारमंगलम अड़े हुए थे और प्रधानमंत्री को चिंता थी कि हेगड़े मुख्य न्याधीश न बन जाएं... (क्योंकि) हेगड़े का फैसला प्रधानमंत्री के हित के खिलाफ था।” उनके निजी सचिव एन. के. शेषन के अनुसार, “इंदिरा गांधी हेगड़े से छुटकारा पाने पर अड़ी हुई थीं। इसके पीछे असली ताकत वही थीं।”इस तरह हेगड़े को विशुद्ध रूप से वैचारिक आधार पर और निजी कारणों से नजरअंदाज कर दिया गया। गोखले, एस. एस. रे और कुमारमंगलम ने न्यायमूर्ति ए. एन. रे के नाम की सिफारिश की क्योंकि अधिकतर खबरों के मुताबिक उन्हें ‘दब्बू’ और उदार माना जाता था। शीला दीक्षित ने बताया, “मोहन और गोखले ने इंदिरा को बताया कि ए. एन. रे सबसे अच्छे हैं।”
मामला वहीं खत्म नहीं हुआ। जब न्यायमूर्ति एच. आर. खन्ना की मुख्य न्यायाधीश पद पर शपथ लेने की बारी आई तो यही सब दोहराया गया। कांग्रेस और श्रीमती गांधी भूल नहीं पाए कि केशवानंद भारती मामले में एच. आर. खन्ना ने ही संविधान के मूल तत्वों के सिद्धांत का पक्ष लिया था और कहा था कि उन्हें संशोधनों के जरिये बदला नहीं सकता। गोलक नाथ मामले में भी यही निर्णय लिया गया था।
न्यायमूर्ति एच. आर. खन्ना ने आपातकाल के दौरान बहुचर्चित जबलपुर एडीएम मामले या बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले में असहमति जताते हुए फैसला सुनाया था कि किसी भी परिस्थिति में नागरिकों के मौलिक अधिकारों और जीवन जीने के अधिकार पर रोक नहीं लगाई जा सकती है और कार्यपालिका को जीवन तथा स्वतंत्रता लेने का असीमित अधिकार नहीं दिया जा सकता है। साथ ही न्यायपालिका को उसकी ‘प्रहरी’ की भूमिका निभाने से रोका नहीं जा सकता और इस तरह संविधान के एक मूल तत्व का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति खन्ना ने अपने फैसले में लिखा कि “एहतियातन हिरासत में लेने का, सुनवाई के बगैर हिरासत में रखने का कानून उन सभी लोगों के लिए अभिशाप है, जो निजी स्वतंत्रता से प्यार करते हैं। ऐसा कानून उस बुनियादी मानवीय स्वतंत्रता का घोर अतिक्रमण करता है, जिसका आनंद हम सभी उठाते हैं और जो जीवन के उच्चतर मूल्यों में प्रमुख है... मौलिक अधिकार नहीं होने पर भी सरकार को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह कानूनी अधिकार के बगैर किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन अथवा व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित कर दे। प्रत्येक नागरिक समाज में यही आवश्यक आधार तत्व तथा विधि शासन की बुनियादी परिकल्पना है।”12 फैसला सुनने के बाद जयप्रकाश नारायण ने अभागे भारतीयों की बात कीः “फैसले ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की फड़फड़ाती लौ को सामने रख दिया है। श्रीमती गांधी की तानाशाही व्यक्तिगत और संस्थागत दोनों ही रूपों में अब लगभग पूरी हो चुकी है।” नियंत्रण के कारण अखबारों को न्यायमूर्ति खन्ना के असहमति भरे फैसले को छापने की इजाजत नहीं मिली। अन्य चार न्यायाधीशों ए. एन. रे, एम. एच. बेग, वाई. वी. चंद्रचूड़ और एच. एन. भगवती ने श्रीमती गांधी का मनचाहा फैसला दिया। इस प्रकार फैसला चार बनाम एक से आया। आपातकाल का विरोध करने वाले सुनवाई के बगैर और जीवन के अधिकार के बगैर जेलों में ही पड़े रहे।
न्यायमूर्ति एच. आर. खन्ना सात न्यायाधीशों में अंतिम न्यायाधीश थे, जिन्होंने कहा कि संसद को मौलिक अधिकारों के कुछ हिस्सों को घटाना अथवा संशोधन करने के अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए संविधान के किसी प्रावधान को संशोधित करने का अधिकार है, लेकिन वह संविधान के मूल ढांचे अथवा प्रारूप को नष्ट नहीं कर सकती और संविधान के तीसरे भाग अथवा मौलिक अधिकारों को समाप्त नहीं कर सकती। जिन सात न्यायाधीशों ने केशवानंद भारती मामले में बहुमत से यह फैसला दिया था कि संविधान के मूल ढांचे में संशोधन नहीं किया जा सकता, उनमें से मुख्य न्यायाधीश एस. एम. सीकरी ने फैसला सुनाने के अगले दिन ही यानी 25 अप्रैल को इस्तीफा दे दिया और सेवानिवृत्त हो गए और न्यायमूर्ति जे. एम. शेलाट, के. एस. हेगड़े तथा ए. एन. ग्रोवर ने मुख्य न्यायाधीश के पद के लिए नजरअंदाज किए जाने पर इस्तीफे दे दिए। न्यायमूर्ति ए. के. मुखर्जी की सेवानिवृत्ति से पूर्व ही मृत्यु हो गई और न्यायमूर्ति पी. जगमोहन रेड्डी नियत समय पर सेवानिवृत्त हुए। जिन सात न्यायाधीशों ने कहा था कि संशोधन की प्रक्रिया से संविधान की पहचान खत्म नहीं होने दी जा सकती, उनमें से अंतिम सेवारत न्यायाधीश न्यायमूर्ति एच. आर. खन्ना थे। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायधीश होने के बाद भी जब कांग्रेस सरकार ने उन्हें मुख्य न्यायाधीश नहीं बनने दिया तो 28 जनवरी, 1977 को न्यायमूर्ति खन्ना ने भी इस्तीफा दे दिया। केशवानंद भारती मामले में अल्पमत का फैसला देने वाले छह न्यायाधीशों में रे पहले ही मुख्य न्यायाधीश बन गए थे और बाकी तीन सेवारत न्यायाधीश भी अपनी बारी आने पर मुख्य न्यायाधीश बने।
लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि चार बनाम एक के मत से आए इस ऐतिहासिक फैसले के बाद क्या हुआ। फैसला सुनाए जाने के बाद नेहरू के अटॉर्नी जनरल और चुनाव मामले में इंदिरा गांधी के वकील अशोक सेन ने खन्ना से मुलाकात की और भारतीय न्यायपालिका की प्रतिष्ठा बचाने के लिए उन्हें बधाई दी। तत्कालीन अटॉर्नी जनरल नीरेन डे चाय की एक दावत में खन्ना को एक तरफ ले गए और कहा, “आपके महान फैसले के लिए मैं आपको बधाई देता हूं।” चंद्रचूड़ और बेग ने बाद में अफसोस जताया कि उन्होंने डरकर फैसला क्यों दिया था। 22 अप्रैल, 1978 को FICCI में बोलते हुए चंद्रचूड़ ने कहाः “मुझे अफसोस है कि मेरे भीतर अपनी बात डटकर कहने और लोगों को यह बताने का साहस नहीं था कि कानून यही है।”न्यायमूर्ति बेग ने आपातकाल के बाद एक मामले में फैसला सुनाते हुए कहाः “बंदी प्रत्यक्षीकरण फैसला शायद बहाने वाला था क्योंकि इससे लगा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार जताने वाली कोई भी याचिका अनुच्छेद 32 अथवा 226 के अंतर्गत नहीं ठहरेगी क्योंकि नागरिकों के अदालत में आने के अधिकार पर रोक लगी हुई थी।”
न्यायपालिका को संविधान संशोधनों की समीक्षा से दूर रखने पर ही बात खत्म नहीं हुई। स्वतंत्र न्यायाधीशों को प्रताड़ित किया गया, दंड दिया गया और ब्लैकमेल भी किया गया, जबकि बात मानने वाले न्यायाधीशों को प्रोन्नतियां दी गईं और पद्म पुरस्कार, आयोगों में नियुक्ति तथा राज्यसभा के लिए नामांकन जैसे पुरस्कार दिए गए। श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने न्यायाधीशों के एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में और वह भी देश के एक कोने से दूसरे कोने में स्थानांतरण करने का सहारा लिया। इससे न्यायाधीश बहुत अस्तव्यस्त और असुरक्षित महसूस करने लगे। आपातकाल के दौरान राष्ट्रीय एकीकरण के नाम पर उच्च न्यायालय के 16 न्यायाधीशों का एक साथ तबादला कर दिया गया। आपातकाल के दौरान स्थानांतरण के मामलों की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति वाई. वी. चंद्रचूड़ ने राष्ट्रीय एकीकरण के इस अनूठे तरीके पर कहाः “उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को एक उच्च न्यायालय से दूसरे में भेजने के अलावा भी राष्ट्रीय एकीकरण को अधिक प्रभावी तरीके से प्राप्त करने के कई अन्य तरीके हैं... एक उच्च न्यायालय से दूसरे में जाने में जो असुविधा और कठिनाई होती है तथा संभवतः अपमान भी होता है, उसे देखते हुए न्यायाधीशों को अछूता छोड़ देना और इस उद्देश्य के लिए दूसरे कदम उठाना बेहतर होता। यदि स्थिति के परिपक्वता भरे और निष्पक्ष मूल्यांकन के बाद भी ऐसा लगता कि उच्च न्यायालयों में दूसरे राज्यों के व्यक्तियों को रखा जाना चाहिए तो शुरुआत में बाहरी न्यायाधीशों की नियुक्तियों के जरिये यही मकसद अधिक आसानी और प्रभावी तरीके से पूरा किया जा सकता था।”
आपातकाल के दौरान विभिन्न उच्च न्यायालयों में बड़ी संख्या में अतिरिक्त न्यायाधीशों को नियमित विस्तार अथवा स्थायी नियुक्ति नहीं दी गईं। इनमें से अधिकतर वे न्यायाधीश थे, जिन्होंने आपातकाल के दौरान आम नागरिकों की गैर कानूनी गिरफ्तारी के खिलाफ फैसले दिए थे। इनमें दिल्ली उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश श्री आर. एन. अग्रवाल शामिल थे, जिन्होंने कुलदीप नैयर को एहतियातन हिरासत से रिहा करने का आदेश दिया था। कांग्रेस जब 1980 में सत्ता में लौटी तो उच्च न्यायालय के पांच मुख्य न्यायाधीशों को स्थायी हुए बगैर ही सेवानिवृत्त होना पड़ा। अतिरिक् न्यायाधीशों को विस्तार अथवा नियुक्तियां एकदम अंतिम क्षणों पर ही दी गईं और उन्हें प्रतिष्ठा कम करने वाले कई बयान देने पर मजबूर किया गया। कांग्रेस पार्टी के नेताओं और सरकार ने न्यायाधीशों को बदनाम करने तथा उनका मनोबल गिराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस सरकार के एक कैबिनेट मंत्री ने समूची न्यायपालिका को केवल इसीलिए विपक्षी पार्टियों के खेमे में बता दिया था क्योंकि न्यायाधीश वह नहीं कर रहे थे, जो कांग्रेस सरकार चाहती थी। समर्पित न्यायपालिका की बात कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस सरकार ही नहीं कर रही थीं बल्कि एक विधि मंत्री ने तो राज्यों के मुख्यमंत्रियों के जरिये प्रत्येक न्यायाधीश को चिट्ठी तक लिख डालीं, जिनमें कहा गया था किः “भारत सरकार उन मूल्यवान न्यायाधीशों का बहुत सम्मान करती है, जो कभी सरकार के खिलाफ फैसला नहीं देते हैं और उच्चतम न्यायालय में उनकी प्रोन्नति पर सकारात्मक ढंग से विचार किया जाएगा।” वास्तव में यह धमकाने वाली चिट्ठी थी।
कांग्रेस और श्रीमती गांधी को सर्वोच्च न्यायपालिका का दमन करके ही संतोष नहीं मिला। उन्होंने संविधान में कई संशोधन (24वें से 42वें संशोधन तक) भी किए और संविधान को अपना दास बना लिया। ऐसी विरासत को दोहराने नहीं दिया जाना चाहिए।
(The article is sourced from the
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